Monday, March 11, 2013

कहानी की खुश्बू को किशोर चौधरी ने याद दिलायी




कहानी की जमीन सतही नहीं होती, खुरदुरी होती है, जहां पहले से मौजूद शिल्प और कथ्य रूपी घास-फूस, झाड़-झंखाड़ को उखाड़ कर एक नये उपजाउ शिल्प की जमीन तैयार की जाती है। इस जमीन से ही यथार्थ के पौधे निकलते हैं और सृजनशीलता को एक नया आयाम देते हैं। कुछ ऐसी ही कोशिश की है राजस्थान के बाड़मेर स्थित आकाशवाणी में उद्घोशक किशोर चौधरी ने। कुल 14 कहानियों के इस संकलन में किशोर ने अलग-अलग कई ऐसे बिंबों को स्थापित किया है जिससे वे किसी श्रेणी के रचनाकार तो बिल्कुल नहीं, लेकिन अपनी अलहदा श्रेणी के रचनाकार बन जाते हैं। आध्यात्मवेत्ता स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘हम कोई नया ज्ञान नहीं उत्पन्न करते, बल्कि ज्ञान तो हर जगह है, हम सिर्फ उसे तलाश करते हैं।’ कुछ ऐसा ही कहानी-खुश्बू बारिश की नहीं... में किशोर कहते हैं- ‘अरे पगली! ये मिट्टी की खुश्बू है, बारिश ने तो सिर्फ याद दिलाई है।’ इसी तरह कहानी की खुश्बू को किशोर चौधरी ने याद दिलायी है। सचमुच खुश्बू तो हमारे जीवन में भी है, जिसे हम किसी फूल से तलाश लेते हैं या फिर रिश्तों की गहराई से।
हिंदी किताबों के लिए बेस्ट सेलर जैसा कोई कांसेप्ट नहीं है। किसी किताब को हाथोंहाथ लिये जाने और महीने दो महीने में पहले संस्करण की सारी प्रतियों के बिक जाने के बाद दूसरे संस्करण की तैयारी के मद्देनजर अंग्रेजी से उधार लेकर ही सही अब इस शब्दावली का प्रयोग होने लगा है। होना भी चाहिए। पिछले साल अक्टूबर में हिंद युग्म प्रकाशन से छपे किशोर चैधरी के कहानी संग्रह ‘चौराहे पर सीढि़यां’ को पाठकों ने अपने हाथों और पठनीयता के जरिये बुकसेल्फ में सजाकर दिसंबर की शुरूआत में महज दो महीने में ही हिंदी का बेस्ट सेलर बना दिया। 
जरा गौर करें तो आज किताबों से दूर भागने और इलेक्ट्रानिक माध्यमों के दौर की इस पीढ़ी में कहानी पढ़ने का साहस पैदा करना और उन्हें साहित्य की ओर खींचना कितना मुश्किल काम है। लेकिन यह भी गौर करने वाली बात है कि यह काम किसी ऐसे रचनाकार ने नहीं की है, जो मुख्यधारा के साहित्य सृजनशीलता से जुड़ा हुआ हो। दरअसल, किशोर चैधरी मौजूदा साहित्यकारों, रचनाकारों की तरह छपास रोग से बहुत दूर हैं। वे अंतर्जालीय रचनाकार हैं। वे एक ब्लागर हैं और जब भी जो कुछ भी लिखते हैं, उसे अपने ब्लाग ‘हथकढ़’ पर दे मारते हैं। नेटीजनों के बीच में उनकी रचनाएं पहुंचती हैं और सराही जाती हैं। यही वजह है कि हिंद युग्म प्रकाशन किशोर की रचनाओं को किताब की शक्ल में लाने के लिए विवश हो गया, जिसका आज दूसरा संस्करण भी सबके सामने है। वेब बुक स्टोर फ्लिपकार्ट और इन्फीबीम पर इसकी बिक्री आज भी जारी है और लोग प्रीबुकिंग के जरिये इसे मंगा रहे हैं। किताबों के आनलाइन होने का एक फायदा यह है कि हिंदी के लोग जो कहीं किसी दूसरी भाषा में रहते हैं, दूसरे मुल्क में रहते हैं, उन तक ये आसानी से पहुंच बना लेती हैं।
किशोर चौधरी की कहानियों की दुनिया साहित्यिक यथार्थ की नहीं, बल्कि मानवीय यथार्थ की दुनिया है। साहित्यिक यथार्थ कहीं न कहीं किताबों की ओर ले जाती है, लेकिन मानवीय यथार्थ किताबों से दूर हकीकत की ओर ले जाती है। इसकी बानगी वहां से मिलती है जब इस संग्रह के शीर्शक वाली कहानी-चैराहे पर सीढि़यां में वे कहते हैं, ‘आदमी को कभी ज्यादा पढ़ना नहीं चाहिए। पढ़ा लिखा आदमी समाज की नींव खोदने के सिवा कोई काम नहीं करता। किताबें उसकी अक्ल निकाल लेती हैं।’ क्या ही सच है कि हमारे समाज में एक से बढ़कर एक पढ़े-लिखे लोग हैं, विद्वान हैं, धर्माचार्य हैं, लेकिन फिर भी आज हमारे समाज का वैचारिक स्तर अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच चुका है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि लोगों ने किताबों को सिर्फ व्यवसाय से जोड़ा, जीवन से नहीं। ऊंचे पदों से जोड़ा, लेकिन इंसानी रिश्तों से नहीं। चैराहे पर सीढि़यां से ही- ‘लोग रिश्तों को सीढ़ी बनाकर चढ़ जाते हैं और फिर वापस लौटना भूल जाते हैं।’ यह आज के दौर का कटु सत्य है और जग जाहिर है लोग इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि अपने अहबाबों से भी साथ रहने का मानसिक किराया वसूल करते हैं।
किशोर की कहानियों में जीवन के हर रंग तो मौजूद हैं, लेकिन उन रंगों की लयात्मकता सामान्यता से कुछ अलग नजर आती है। उनके सोचने का नजरिया बिल्कुल अलग है। धर्म और आस्था तर्कों की कसौटी पर कसे गये हैं, लेकिन किशोर इसे नकारते हुए कहानी ‘सड़क जो हाशिए से कम चैड़ी थी’ में कहते हैं- ‘आस्था और तर्क बिना किसी सुलह के विपरीत रास्ते पर चल देते हैं।’ यह विपरीत रास्ता हमारे समाज के खांचों में ही कहीं न कहीं मिल जाता है तो हमारे सोच का फलक कुछ और हो जाता है। कहानी ‘रात की नीम अंधेरी बाहें’ में किशोर का खुद के सोचने के बारे में एक मासूम सा बयान देखिए- ‘मैं दूसरों के बारे में इसलिए सोचता हूं कि खुद के बारे में सोचने से तकलीफ होती है। खुद के बारे में सोचते हुए मैं जीवन दर्शन में फंस जाता हूं। मेरा अज्ञान मुझे डराने लगता है। मैं इस संसार को मिथ्या समझने लगता हूं। जबकि कुछ ही घंटों बाद जीवन को जीने के लिए दफ्तर जाना जरूरी होता है। दफ्तर न जाओ तो ये मिथ्या संसार हमें भूख का आईना दिखाता है। कहता है बाबूजी यही दुनिया सत्य है, यहां मिथ्या कुछ भी नहीं।’ 
जीवन के हर एक रंग को अलग-अलग बिंबों में पेश करने वाले किशोर चैधरी की कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम किसी कथ्य या किरदार को नहीं, बल्कि अनायास होती घटनाओं को पढ़ रहे हैं जो हमारे जीवन से ही जुड़ी हुई होती हैं। हालांकि कहीं-कहीं छिटकती भी हैं, लेकिन फिर वापस आकर जुड़ भी जाती हैं। रूढ़ीवादी तत्वों से किशोर ने इनकार नहीं किया, लेकिन लिखते हुए कुछ ऐसा शिल्प गढ़ते हैं कि पाठकों को उन तत्वों से इनकार कर आधुनिकता की ओर जाने के लिए मजबूर कर देते हैं। कहानी ‘एक अरसे से’ में- ‘लोग कहते थे कि बड़ी गलती की, दरवाजे के ठीक सामने दरवाजा बनाया। भाग घर के पार हो जायेगा। सौभाग्य को कैद करने के लिए जरूरी था कि आर-पार दरवाजे न हों।’ बेहद छोटे-छोटे वाक्यों और आम बोलचाल के शब्दों का इस्तेमाल करने वाले किशोर को पढ़ना साहित्य के एक नये आयाम को समझना नहीं है, लेकिन एक वर्तमान साहित्य के बीच एक चुनौती की तरह जरूर देखना है, जिस पर किशोर खरा उतरने के काबिल हैं।

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