Monday, January 2, 2012

मशहूर शायर निदा फाजली से हुई बातचीत का एक टुकड़ा


कहीं भी रहूँ, घर की तरह जीता हूँ 

       साल 2011 वैसे ही गुजर गया जैसे इसके पहले 2010 और उसके पहले के सभी साल गुजरते गये थे. लम्हा-दर-लम्हा, वक्त-दर-वक्त, दिन-महीने-साल गुजरते जाते हैं और हम अपनी जिंदगी को वक्त के मुताबिक जिये जाते हैं. इन्हीं गुजरते हुए लम्हों के बीच अक्सर सुनने में आता है जब लोग कहते हैं कि वे जहां पैदा हुए, वह जगह और वह मुल्क उनके लिए सबसे प्यारा है. यह एक अच्छी बात है, क्योंकि एक इंसान के लिए अपनी जड़ों से जुडे रहने का एहसास बहुत अच्छा होता है. वे अपनी तहजीब और रस्मो-रिवाज की  जड़ों में लिपटे तो रहते हैं, लेकिन अपनी बुनियाद की दुहाई देते हुए जहां वे बस जाते हैं, वहीं जीने के आदी भी हो जाते हैं. ऐसे में यह सवाल उठाना कि लोग अपनी  जड़ों  से कटने के बाद उसे मिस (याद) करते रहते हैं, बेमाने हो जाता है.
        तहजीब, रवायतों और परंपराओं को जिंदा रखने जैसी तमाम बातें भारतीय मध्य वर्ग की सोच का नतीजा है. उच्च और निम्न वर्गों में ऐसी कोई सोच नहीं होती. जो निम्न वर्ग से आता है, वह कहीं चला जाये, अपनी मेहनत से अपनी एक दुनिया बना लेता है. उच्च वर्ग कहीं भी जाकर जमीन-जायदाद-घर खरीदकर रहने लगता है. लेकिन मध्य वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो दोनों के बीच में बैठकर ऊपर-नीचे दोनों तरफ देखता हुआ लुढकता रहता है. यह बात तो जग जाहिर है कि कोई भी इंसान अपने घर को तभी छोड़ता है जब उसे वहां रोटी नहीं मिलती. या फिर उसके पास इतने पैसे होते हैं कि उसकी ख्वाहिशें उसे बड़े शहर की तरफ खींच लाती हैं. वह वहां जाकर गुजर-बसर करने लगता है और फिर वह उसके लिए वही सबसे अच्छी जगह हो जाती है. इसके बाद भी अगर वह अपनी जड़ों की दुहाई देता है तो यह एक दिखावा मात्र लगता है.
        सबको मालूम है कि हमारे हिंदुस्तान की कुछ भूख दुनिया के तमाम मुल्कों में रोटी खा रही है. दुनिया के दूसरे मुल्कों के लोग भी यहाँ आकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. बहुत से ऐसे हिंदुस्तानी जो दूसरे मुल्क में हैं उनके अंदर हिंदुस्तान आने की थोड़ी सी भी कसक नहीं है. क्योंकि, जहां भी रोटी होती है वहां आदमी होता है. वैसे ही जैसे- जहां नदी होती है, वहां बस्ती होती है. अगर किसी का जन्म पहाड़ पर हुआ हो और कालांतर में जब उसके जीने के लिए वहां कुछ न हो तो वह नदी किनारे बसी बस्ती की तरफ ही जायेगा. फिर भी वह कहे कि वह  पहाड़ को मिस कर रहा है तो यह दिखावे वाली बात होगी. दुनिया में कोई जगह खराब नहीं होती, बल्कि हम इसे अच्छा या बुरा बना देते हैं. अपनी तहजीब और अपने मुल्क को ही अच्छा मानना, दूसरे की तहजीब और मुल्क को बुरा मानने के बराबर है. यह कोई आज की बात नहीं है. अगर आप गौर करें तो एक जगह से दूसरी जगह पर जाकर बसने की रवायत तो सदियों-सदियों से चली आ रही है. अप्रवास की रवायत से संस्कृतियों का आदान-प्रदान होता रहता है और एक विकसित एवं संतुलित समाज का निर्माण होता है.
        मैं कभी भी अपनी पैदाइशी जगह को अच्छी नहीं कह सकता. मैं कहीं भी रहूं, उसे अपने घर की तरह जीता हूं. मेरे लिए घर बहुत मायने रखता है. मेरे लिए पूरी दुनिया बहुत अच्छी है, इसलिए मेरे घर में एक पूरी दुनिया रहती है. सिर्फ अपने वतन को अच्छा कहने की वतनपरस्ती मेरे लिए एक लानत है. कुरान की पहली लाइन है- अल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन... तारीफ उसकी जो पूरी दुनिया का रब है. हिंदू शास्त्र में लिखा है- कण-कण में नारयान व्याप्त हैं... यानि पूरी दुनिया का एक ही ईश्वर है. बाइबिल कहता है- लेट देयर बी लाईट, देयर वाज लाईट... हमारे  शास्त्र, हमारी किताबें और हमारे धर्म बिना किसी भेदभाव के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात करते हैं. इसे मानने की जरूरत है.  शास्त्र  में आता है- अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्. उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्...। यानि, यह अपना है और यह पराया है, ऐसी गणना छोटे हृदय वाले लोग करते हैं. उदार हृदय वाले लोगों का तो पृथ्वी ही परिवार है. 

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