Sunday, October 30, 2011

अब एक और नज्म *शब*


न शब-ए-वस्ल, न शब-ए-फिराक, न शब-ए-फुरकत
न शब-ए-गम, न शब-ए-उफ, न शब-ए-हिजरत।
न शब-ए-जां, न शब-ए-जाना, न शब-ए-जान-ए-जहां
न शब-ए-दम, न शब-ए-खम, न शब-ए-कुरबत।।

न शब-ए-इश्क, न शब-ए-मुश्क, न शब-ए-आरजू
न शब-ए-उन्स, न शब-ए-शौक, न शब-ए-जुस्तजू।
न शब-ए-यार, न शब-ए-प्यार, न शब-ए-आशना
न शब-ए-ऐर, न शब-ए-गैर, न शब-ए-तू-ही-तू।।

न शब-ए-हर्फ, न शब-ए-लफ्ज़, न शब-ए-तहरीर
न शब-ए-आस, न शब-ए-प्यास, न शब-ए-तदबीर।
न शब-ए-रंग, न शब-ए-नूर, न शब-ए-हिकमत
न शब-ए-आह, न शब-ए-अश्क, न शब-ए-तकदीर।।

वल्लाह कुछ भी नहीं, फिर भी ये बदगुमानी क्यों?
तू गर मिसाल है तो मिसाल-ए-नातवानी क्यों?
तू गर हुस्न है तो है बेनकाब क्यों आखिर?
तू गर इश्क है तो बे-फैज-ए-याब क्यों आखिर?

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