Wednesday, October 19, 2011

कबसे हसरत थी


कबसे हसरत थी मुझे


एक मासूम सी ख्वाहिश थी

एक अदना सा तकाजा था

एक छोटी सी इल्तिजा थी

एक बोसीदा सा तसव्वुर था

एक सहमी सी आरजू थी

एक ठहरा सा वलवला था


कि तुम किसी ‘शब’

मेरी महफिल-ए-नाज में

यूं भी आते

यूं भी आते और

अपनी गुदाज बाहों में भरकर

मेरे रूहानी लम्स को जीते।


या किसी ‘शब’ तुम 

यूं भी आते और 

रूखी सी फिजा को छूकर

उसे ‘नम’ करते।


तो मुझे

अपने जिस्म-ओ-जां की

सभी राहतें

तुम्हें सौंप देने में

तकल्लुफ न होता जरा भी ।


कबसे हसरत थी मुझे

कबसे?

शायद! अभी से!

शायद! कल से!

या शायद! अजल से!


कबसे हसरत थी मुझे...

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