Monday, October 3, 2011

जेहनो-दिल का रावण


इस बार दशहरे में फिर
हम जलायेंगे रावण
शायद इस बार
भ्रष्टाचार रूपी रावण की बारी है
उसे जलाकर हम मनायेंगे जश्न
बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न।

बुराई के बजाय
बुराई के प्रतीक को जलाकर
कितना खुश होते हैं हम
और अगली सुबह से ही
अपने कारोबार को फिर
जीने लगते हैं वैसे
जैसे रोज जिया करते थे इससे पहले, 
शराब पीकर सडक पर
बेवजह रिक्शे वाले को डांटकर
उसे अन्ना बनने का 
बेवकूफी भरा मशवरा दे डालते हैं।

खुद में बुराई ढूंढने की बजाय
दुनिया को बुरा कहने से 
कभी नहीं हिचकते हम
कंधे पर गुनाहों की पोटली लिये
दर-ब-दर भटकते हैं
मगर दूसरे को गाली देने से 
बाज नहीं आते कभी भी।

कागजी रावण तो
मर जाता है हर साल
मगर 
हमारे जेहनो दिल में रोज
जन्म लेता है एक रावण।

जिस दिन हम खुद को
गाली देना सीख लेंगे
उस दिन हमारे दिल का रावण भी
मर जायेगा खुद-ब-खुद।

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